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मीराबाई के दोहे अर्थ सहित / मीराबाई का जन्म कब हुआ

मीरा का जन्म कहाँ हुआ

मीराबाई के दोहे अर्थ सहित नमस्कार दोस्तों आज हम बात करने वाले हैं मीराबाई के बारे में मीराबाई भगवान श्री कृष्ण की अनन्य भक्ति करने वाली बाई मीरा का नाम आज पूरे राजस्थान में लिया जाता है मीराबाई एकमात्र कैसे कवियत्री थी जो भगवान श्री कृष्ण को अपना सबकुछ मान चुकी थी मीराबाई का जन्म कब हुआ था, मीराबाई किस कुल की थी, मीराबाई के पति का नाम क्या था, मीराबाई की प्रमुख रचनाएं, मीराबाई के प्रमुख पद, मीराबाई के पिता का नाम, आदि सभी आज हम इस आर्टिकल के माध्यम से विस्तार से पड़ेंगे |मीराबाई के दोहे अर्थ सहित,

मीराबाई का जीवन परिचय

मीराबाई का जन्म 1498 ई. हिंदी पंचांग के अनुसार विक्रम संवत् 1555 को राजस्थान में मेड़ता के पास कुकड़ी गांव में हुआ। इनके पिता रतन सिंह जी तथा दादा राव दुदा जी थे व राठौड़ राजा राव जोधा जी इनके परदादा थे। इनका बचपन का नाम पेमल था यह बचपन से ही गिरधर की भक्ति करती व भजन गाया करती तथा अपने साथ गिरधर की मूर्ति सदैव रखती थी। गिरधर की मूर्ति को उठाना, स्नान कराना, भोजन कराना, पूजन कराना, सुलाना आदि की व्यवस्था मीरा स्वयं करती। यह मूर्ति उन्हें किसी साधु से प्राप्त हुई थी।

ये अपनी कृष्ण भक्ति में लीन रहती और खुश रहती परंतु उनकी बाल्यावस्था में ही उनकी माता का देहांत हो गया। कम उम्र में मां का साया हट गया और पिता अपने काम में व्यस्त होने से उनके पास ज्यादा वक्त नहीं रह पाते। छोटी उम्र में इतने कष्ट को झेलना पड़ा तो उनके दादा राव दुदा जी ने इन्हें अपने पास मेड़ता रहने के लिए बूला दिया।

मेड़ता में इन्हें अपने दादा के स्नेह के साथ धर्म-कर्म में भी बहुत ज्ञान प्राप्त हुआ। और इसी धार्मिकता ने मीराबाई को गिरधर के ज्यादा निकट ला दिया। (मीराबाई का बचपन) कुछ वक्त बाद जब राव दूदा की मृत्यु हो गई तब दुदा के बड़े बेटे राव वीरमदेव ने इनको अपने साथ रख लालन-पालन किया।मीराबाई के दोहे अर्थ सहित,

मीरा पर हुए अत्याचार 

मीरा गिरधर की भक्ति में लीन होकर भजन गाने लगी और प्रेम में वशीभूत होकर सारी लोग लज्जा त्याग नाचने लगी। उनका मंदिरों में यू नाचना मेवाड़ के ऊंचे राजवंश की मर्यादा के विरुद्ध जान पडने लगा। इस बात से परेशान होकर महाराणा सांगा के दूसरे बेटे रतन सिंह और छोटे भाई विक्रमजीत सिंह ने मीरा पर कई प्रकार के अत्याचार करना शुरू कर दिया, सिर्फ़ अत्याचार ही नहीं उन्होंने उन्हें समाप्त कर मौत के घाट उतारने तक के भी कई प्रयास किए।

उन्होंने सांपों से डसवाने का प्रयास भी किया परंतु गिरधर के आशीर्वाद और चमत्कार से सांप शालिग्राम बन गए । (मीरा ने विष का प्याला पी लिया) जब राणा ने उन्हें एक बार विष का प्याला पीने को दिया तब उन्होंने गिरधर का भजन करते हुए वह प्याला पी लिया और यह विष का प्याला गिरधर की कृपा से अमृत में परिवर्तित हो गया।मीराबाई के दोहे अर्थ सहित,

मीराबाई का अन्तिम समय 

नाना प्रकार के अत्याचारों से परेशान होकर वे मेड़ता आ गई। मेड़ता में मीरा के चाचा वीरमदेवजी राज करते थे तो वे प्रोत्साहित होकर तीर्थ यात्रा को निकल पड़ी। तीर्थयात्रा में वे गिरधर के कई मंदिरों से होते हुए वृंदावन गई फिर वहां से द्वारिका पहुंची। (मीराबाई की मृत्यु) द्वारिका में रणछोड़ भगवान की भक्ति में लीन रहने लगी और अपना समय वही गुजारने लगी।

सन् 1546 (विक्रम संवत 1603) में द्वारिका में रणछोड़ की मूर्ति में समा गई और दुनिया से नाता तोड़ गई। दुनिया से तो उन्होंने अपने आप को शुरू से ही अलग रख के अपना सर्वस्व गिरधर को सौंप दिया लेकिन उन्होंने अपने प्राण 1546 के आसपास त्याग दिए और अपने शरीर को त्याग रनछोड़ में समा गई।मीराबाई के दोहे अर्थ सहित,

मीराबाई के प्रसिध्द दोहे

मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों न कोई।
जाके सिर मोर मुकट मेरो पति सोई।।
दोहे का अर्तुथ —>> इस दोहे में मीराबाई जी कहती हैं कि- मेरे तो बस श्री कृष्ण हैं जिसने पर्वत को उंगली पर उठाकर गिरधर नाम पाया है। इसके अलावा मैं किसी को अपना नहीं मानती। इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि जिसके सिर पर मौर का पंख का मुकुट हैं वही मेरे पति हैं।
तात मात भ्रात बंधु आपनो न कोई।
छाड़ि दई कुलकि कानि कहा करिहै कोई।।
दोहे का अर्तुथ —>> महान कवियित्री और संत मीराबाई जी कहती हैं कि मेरे इस दुनिया में ना तो पिता हैं, ना ही माता हैं और ना ही कोई भाई हैं लेकिन मेरे गिरधर गोपाल हैं अर्थात मीराबाई ने श्री कृष्ण को ही अपना सर्वस्क्त्र माना है।मीराबाई के दोहे अर्थ सहित ,
मै म्हारो सुपनमा पर्नारे दीनानाथ
छप्पन कोटा जाना पधराया दूल्हो श्री बृजनाथ
सुपनमा तोरण बंध्या री सुपनमा गया हाथ
सुपनमा म्हारे परण गया पाया अचल सुहाग
मीरा रो गिरीधर नी प्यारी पूरब जनम रो हाड
मतवारो बादल आयो रे
लिसतें तो मतवारो बादल आयो रे
दोहे का अर्तुथ —>> इस दोहे के माध्यम से मीराबाई कहती हैं कि उनके सपने में श्री कृष्ण दूल्हे राजा बनकर पधारे। सपने में तोरण बंधा था जिसे हाथो से तोड़ा दीनानाथ ने। सपने में मीरा ने कृष्ण के पैर छुये और सुहागन बनी।,मीराबाई के दोहे अर्थ सहित,
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो
वस्तु अमोलिक दी मेरे सतगुरु किरपा करि अपनायो। पायो जी मैंने
जनम जनम की पूंजी पाई जग में सभी खोवायो। पायो जी मैंने
खरचै न खूटै चोर न लूटै दिन दिन बढ़त सवायो। पायो जी मैंने
सत की नाव खेवटिया सतगुरु भवसागर तर आयो। पायो जी मैंने
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर हरष हरष जस गायो।पायो जी मैंने
दोहे का अर्तुथ —>> कृष्ण की भक्ति में लीन रहने वाली मीराबाई कहती हैं, मुझे राम रूपी बड़े धन की प्राप्ति हुई हैं। मेरे सद्गुरु ने कृपा करके ऐसी अमूल्य वस्तु भेट की हैं, उसे मैंने पूरे मनोयोग से अपना लिया हैं। उसे पाकर मुझे लगा मुझे ऐसी वस्तु प्राप्त हो गईं हैं, जिसका जन्म-जन्मान्तर से इन्तजार था। अनेक जन्मो में मुझे जो कुछ मिलता रहा हैं बस उनमे से यही नाम मूल्यवान प्रतीत होता हैं।यह नाम मुझे प्राप्त होते ही दुनिया की अन्य चीजे खो गईं हैं। इस नाम रूपी धन की यह विशेषता हैं कि यह खर्च करने पर कभी घटता नही हैं, न ही इसे कोई चुरा सकता हैं, यह दिन पर दिन बढता जाता हैं। यह ऐसा धन हैं जो मोक्ष का मार्ग दिखता हैं। इस नाम को अर्थात श्री कृष्ण को पाकर मीरा ने ख़ुशी – ख़ुशी से उनका गुणगान किया है।
ऐरी म्हां दरद दिवाणी
म्हारा दरद न जाण्यौ कोय
घायल री गत घायल जाण्यौ
हिवडो अगण सन्जोय।।
जौहर की गत जौहरी जाणै
क्या जाण्यौ जण खोय
मीरां री प्रभु पीर मिटांगा
जो वैद साँवरो होय।।
दोहे का अर्तुथ —>> ऐ री सखि मुझे तो प्रभु के प्रेम की पीड़ा भी पागल कर जाती है। इस पीड़ा को कोई नहीं समझ सका। समझता भी कैसे। क्योंकि इस दर्द को वही समझ सकता है जिसने इस दर्द को सहा हो, प्रभु के प्रेम में घायल हुआ हो। मेरा हृदय तो इस आग को भी संजोए हुए है। रतनों को तो एक जौहरी ही परख सकता है, जिसने प्रेम की पीड़ा रूपी यह अमूल्य रत्न ही खो दिया हो वह क्या जानेगा। अब मीरा की पीडा तो तभी मिटेगी अगर सांवरे श्री कृष्ण ही वैद्य बन कर चले आएं।
मनमोहन कान्हा विनती करूं दिन रैन
राह तके मेरे नैन
अब तो दरस देदो कुञ्ज बिहारी
मनवा हैं बैचेन
नेह की डोरी तुम संग जोरी
हमसे तो नहीं जावेगी तोड़ी
हे मुरली धर कृष्ण मुरारी
तनिक ना आवे चैन
राह तके मेरे नैन
मै म्हारों सुपनमा
लिसतें तो मै म्हारों सुपनमा
दोहे का अर्तुथ —>> मीरा अपने भजन में भगवान् कृष्ण से विनती कर रही हैं कि हे कृष्ण। मैं दिन रात तुम्हारी राह देख रही हूँ। मेरी आँखे तुम्हे देखने के लिए बैचेन हैं मेरे मन को भी तुम्हारे दर्शन की ही ललक हैं। मैंने अपने नैन केवल तुम से मिलाए हैं अब ये मिलन टूट नहीं पाएगा। तुम आकर दर्शन दे जाओ, तब ही मुझे चैन मिलेगा।
मतवारो बादल आयें रे
हरी को संदेसों कछु न लायें रे
दादुर मोर पापीहा बोले
कोएल सबद सुनावे रे
काली अंधियारी बिजली चमके
बिरहिना अती दर्पाये रे
मन रे परसी हरी के चरण
लिसतें तो मन रे परसी हरी के चरण
दोहे का अर्तुथ —>> बादल गरज कर आ रहे हैं लेकिन हरी का कोई संदेशा नहीं लाए। वर्षा ऋतू में मोर ने भी पंख फैला लिए हैं और कोयल भी मधुर आवाज में गा रही हैं।और काले बदलो की अंधियारी में बिजली की आवाज से कलेजा रोने को हैं। विरह की आग को बढ़ा रहा हैं। मन बस हरी के दर्शन का प्यासा हैं।
भज मन! चरण-कँवल अविनाशी।
जेताई दीसै धरनि गगन विच, तेता सब उठ जासी।।
इस देहि का गरब ना करणा, माटी में मिल जासी।।
यों संसार चहर की बाजी, साझ पड्या उठ जासी।।
कहा भयो हैं भगवा पहरया, घर तज भये सन्यासी।
जोगी होई जुगति नहि जांनि, उलटी जन्म फिर आसी।।
अरज करू अबला कर जोरे, स्याम! तुम्हारी दासी।
मीराँ के प्रभु गिरधर नागर! काटो जम की फांसी।।
दोहे का अर्तुथ —>> मीराबाई इस पद में कहती हैं कि हे मन तू कभी नष्ट ना होने वाले भगवान् के चरणों में ध्यान धरा कर। तुझे इस धरती और आसमान के बीच जो कुछ दिखाई दे रहा हैं। इसका अंत एक दिन निश्चित हैं। यह जो तुम्हारा शरीर हैं इस पर बेकार में ही घमंड कर रहे हो, यह भी एक दिन मिटटी के साथ मिल जाएगा। यह संसार चौसर के खेल की तरह हैं। बाजी शाम को खत्म हो जाती हैं।उसी प्रकार यह संसार नष्ट होने वाला हैं। भगवान् को प्राप्त करने के लिए भगवा वस्त्र धारण करना काफी नही हैं।इसके साथ ही मीरा ने इस पद के माध्यम से लोगों को यह भी बताने की कोशिश की है कि – सन्यासी बनने से न ही ईश्वर मिलता हैं, न जीवन मरण के इस चक्कर से मुक्ति मिल पाती है। इसलिए अगर ईश्वर को प्राप्त करने की युक्ति नहीं अपनाई तो इस संसार में फिर से जन्म लेना पड़ेगा।
दरस बिनु दुखण लागे नैन।
जब के तुम बिछुरे प्रभु मोरे कबहूँ न पायों चैन।।
सबद सुनत मेरी छतियाँ काँपे मीठे-मीठे बैन।
बिरह कथा कांसुं कहूँ सजनी, बह गईं करवत ऐन।।
कल परत पल हरि मग जोंवत भई छमासी रेण।
मीराँ के प्रभु कबरे मिलोगे, दुःख मेटण सुख देण।।
दोहे का अर्तुथ —>> मीरा कहती हैं कि हे मेरे प्रभु आपके दर्शन बहुत दिनों से नही हुए हैं, इसलिए आपके दर्शन की लालसा से मेरे नैन दुःख रहे हैं। उनमे दर्द होने लग रहा हैं। जब से आप मुझसे अलग हुए हैं, मैने कभी चैन नही पाया हैं। कोई भी आवाज होती हैं तो मुझे लगता हैं आप आ रहे हैं, आपके दर्शन के लिए मेरा ह्रदय अधीर हो उठता हैं। और मुख से मीठे वचन निकलने लगते हैं।पीड़ा में कडवे शब्द तो होते ही नही हैं। मीरा कहती हैं, सजनी मुझे भगवान से न मिलने की पीड़ा हो रही हैं, मै किसे अपनी विरह व्यथा सुनाऊ, वैसे भी इससे कोई फायदा भी तो नही हैं। इतनी असहनीय पीड़ा हो रही हैं, यदि कांशी में जाकर करवट बदलू तो भी यह कष्ट कम नही होता। पल-पल भगवान् की प्रतीक्षा ही किये रहती हु। उनकी प्रतीक्षा में यह समय बड़ा होने लग गया हैं, एक रात 6 महीने के बराबर लगती हैं।
बरसै बदरिया सावन की
सावन की मन भावन की।
सावन में उमग्यो मेरो मनवा
भनक सुनी हरि आवन की।।
उमड घुमड चहुं दिससे आयो,
दामण दमके झर लावन की।
नान्हीं नान्हीं बूंदन मेहा बरसै,
सीतल पवन सोहावन की।।
मीरां के प्रभु गिरधर नागर,
आनन्द मंगल गावन की।।
दोहे का अर्तुथ —>> मन को लुभाने वाली सावन की रितु आ गई है और बादल बरसने लगे हैं। मेरा हृदय उमंग से भर उठा है। हरि के आने की संभावना जाग उठी है। मेध चारों दिशाओं से उमड़-घुमड़ क़र आ रहे हैं, बिजली चमक रही है और नन्हीं बूंदों की झड़ी लग गई है। ठण्डी हवा मन को सुहाती हुई बह रही है। मीरा के प्रभु तो गिरधर नागर हैं, सखि आओ उनका मंगल गान करें।
माई री! मै तो लियो गोविन्दो मोल।
कोई कहे चान, कोई कहे चौड़े, लियो री बजता ढोल।।
कोई कहै मुन्हंगो, कोई कहे सुहंगो, लियो री तराजू रे तोल।
कोई कहे कारो, कोई कहे गोरो, लियो री आख्या खोल।।
याही कुं सब जग जानत हैं, रियो री अमोलक मोल।
मीराँ कुं प्रभु दरसन दीज्यो, पूरब जन्म का कोल।।
दोहे का अर्तुथ —>> मीरा बाई अपनी सखी से कहती हैं- माई मेने श्री कृष्ण को मोल ले लिया हैं। कोई कहता हैं, अपने प्रियतम को चुपचाप बिना किसी को बताए पा लिया हैं। कोई कहता हैं, खुल्लमखुला सबके सामने मोल लिया हैं।मै तो ढोल-बजा बजाकर कहती हु बिना छिपाव दुराव सभी के सामने लिया हैं। कोई कहता हैं, तुमने सौदा महंगा लिया हैं तो कोई कहता हैं सस्ता लिया हैं। अरे सखी मेने तो तराजू से तोलकर गुण अवगुण देखकर मौल लिया हैं। कोई काला कहता हैं तो कोई गोरा मगर मैने तो अपनी आँखों खोलकर यानि सोच समझकर गोविन्द को खरीदा हैं।मीरा बाई कहती हैं, कि कृष्ण को प्राप्त करने के लिए मुझे कठिन जतन करना पड़ा। मेरे लिए वह बहुमूल्य वस्तु हैं, जिसकी कीमत आंकी नही जा सकती। लोग बस इंतना ही जानते हैं, कि मैंने कृष्ण को गोद लिया हैं। मगर मेने यु ही नही लिया हैं। सोच समझकर आंखे खोलकर लिया हैं। मीरा कहती हैं, हे प्रभु मुझे दर्शन दीजिए। मुझे दर्शन देने के लिए आपने पुनर्जन्म लेने का वादा कर रखा हैं। अब आप अपने वचन को निभाइए।

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