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सूरदास के प्रसिध्द दोहे
चरन कमल बन्दौ हरि राई जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै आंधर कों सब कछु दरसाई। बहिरो सुनै मूक पुनि बोलै रंक चले सिर छत्र धराई सूरदास स्वामी करुनामय बार-बार बंदौं तेहि पाई।। दोहे का अर्तुथ —>> इस दोहे के माध्यम से सूरदास जी भगवान श्री कृष्ण की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि जिस पर श्री कृष्ण की कृपा होती है वो सब कुछ कर जाता है। फिर कोई भी काम उसके लिए असंभव नहीं रहता है। यदि श्री कृष्ण की कृपा किसी लंगड़े पर हो गई तो वो किसी भी बड़े से बड़ा पहाड़ भी लांघ सकता है और एक अन्धें पर हो जाती है तो वह इस सुंदर दुनिया को अपनी आँखों से देख सकता है। जब भगवान श्री कृष्ण की कृपा होती है तो बहरे को सुनाई और गूंगे बोलने लग जाते हैं। कोई भी व्यक्ति गरीब नहीं रहता। ऐसे करुण मय भगववान के पैरों में सूरदास बार बार नमन करता है। |
सूरदास के पद व्याख्या सहित मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ मोसौं कहत मोल कौ लीन्हौं, तू जसुमति कब जायौ।। कहा करौन इहि के मारें खेलन हौं नहि जात पुनि-पुनि कहत कौन है माता, को है तेरौ तात।। गोरे नन्द जसोदा गोरीतू कत स्यामल गात चुटकी दै-दै ग्वाला नचावत हँसत-सबै मुसकात।। तू मोहीं को मारन सीखी दाउहिं कबहुं न खीझै मोहन मुख रिस की ये बातैं, जसुमति सुनि-सुनि रीझै।। सुनहु कान्ह बलभद्र चबाई, जनमत ही कौ धूत सूर स्याम मौहिं गोधन की सौं, हौं माता तो पूत।। दोहे का अर्तुथ —>> सूरदास जी इस दोहे में श्री कृष्ण के और बलराम के बचपन का एक किस्सा बताते हैं। कहते हैं कि श्री कृष्ण यशोदा मैया के पास जाते है और बलराम की शिकायत करते हैं कि उन्हें दाऊ भैया यह कहकर खिझाते है कि तुमको यशोदा मैया कहीं बाहर से लेकर आई है। तुम्हे तो मोल भाव करके किया गया है। इस कारण मैं खेलने नहीं जा रहा हूं। वे कहते कि यशोदा मैया और नंदबाबा तो गोरे रंग के है और तुम सांवले रंग के। तुम्हारे माता-पिता कौन हैं? इतना कहकर वो ग्वालों के साथ चले जाते हैं और उनके साथ खेलते व नाचते हैं। आप दाऊ भैया को तो कुछ नहीं कहती और मुझे मारती रहती हैं। श्री कृष्ण से ये सुनकर मैया यशोदा मन ही मन मुस्कुराती है। ये देख कृष्ण कहते हैं कि गाय माता की सौगंध खाओ कि मैं तेरा ही पुत्र हूं। |
बूझत स्याम कौन तू गौरी, कहां रहति काकी है बेटी देखी नहीं कहूं ब्रज खोरी। काहे कों हम ब्रजतन आवतिं खेलति रहहिं आपनी पौरी, सुनत रहति स्त्रवननि नन्द ढोता करत फिरत माखन दधि चोरी।। तुम्हरो कहा चोरि हम लैहैं खेलन चलौ संग मिलि जोरी। सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भुरइ राधिका भोरी।। दोहे का अर्तुथ —>> इस दोहे में सुरदास जी कहते हैं कि श्री कृष्ण अपनी एक सखी से पूछते है और कहते हैं कि हमने तुम्हें पहले कभी ब्रज में नहीं देखा और तुम कौन हो? तुम्हारी माता कौन और कहां रहती हो? तुम्हारी बेटी हमारे साथ क्यों नहीं खेलने आती है श्री कृष्ण की इन बातों को सखी खड़ी होकर शांति से सुनती है। श्री कृष्ण कहते हैं कि हमें खेलने के लिए एक और सखी मिल गई है। भगवान श्री कृष्ण श्रृंगार रस के ज्ञाता है और वह श्रीकृष्ण और राधा की बातों को सुंदर तरीके से बताते हैं।(सूरदास जी के दोहे अर्थ सहित) |
मैया मोहि मैं नहि माखन खायौ, भोर भयो गैयन के पाछे, मधुबन मोहि पठायो, चार पहर बंसीबट भटक्यो, साँझ परे घर आयो।। मैं बालक बहियन को छोटो, छीको किही बिधि पायो, ग्वाल बाल सब बैर पड़े है, बरबस मुख लपटायो।। तू जननी मन की अति भोरी इनके कहें पतिआयो, जिय तेरे कछु भेद उपजि है, जानि परायो जायो।। यह लै अपनी लकुटी कमरिया, बहुतहिं नाच नचायों, सूरदास तब बिहँसि जसोदा लै उर कंठ लगायो।। दोहे का अर्तुथ —>> बहुत ही प्रसिद्ध यह सूरदास का पद है। इस पद में सूरदासजी श्री कृष्ण की बाललीला का वर्णन करते हैं। कहते हैं कि श्री कृष्ण अपनी मैया से कहते हैं कि मैंने माखन नहीं खाया है। तुम तो मुझे सुबह होते ही गायों के पीछे भेज देती हो और दिन के चारों पहर भटकता हूं और साँझ को वापस आता हूं। मैं तो छोटा सा बालक हूं। मेरी तो बाहें भी छोटी हैं। ये माखन के छींके तक पहुँचती भी नहीं। मेरे सभी मित्र मेरे से बैर रखते हैं। इसलिए उन्होंने मेरे मुंह पर माखन को लिपटा दिया है। तू मां बहुत ही भोली है। जो तुम इनकी बातों में आ गई। तेरे दिल में मेरे लिए कोई भेद जरूर हैं, जो तुम मुझे अपना नहीं समझती। हमेशा पराया ही समझती है। तभी तो मेरे पर हमेशा संदेह करती है। ये ले तुम्हारी कम्बल और लाठी। तुमने मुझे बहुत ही परेशान किया है। यशोदा मैया का श्री कृष्ण की इन बातों ने मन मोह लिया। मैया यशोदा ने मुस्कुराते हुए श्री कृष्ण को गले लगा लिया। |
अबिगत गति कछु कहति न आवै। ज्यों गुंगो मीठे फल की रस अन्तर्गत ही भावै।। परम स्वादु सबहीं जु निरन्तर अमित तोष उपजावै। मन बानी कों अगम अगोचर सो जाने जो पावै।। रूप रैख गुन जाति जुगति बिनु निरालंब मन चक्रत धावै। सब बिधि अगम बिचारहिं तातों सूर सगुन लीला पदगावै।। दोहे का अर्तुथ —>> सूरदास जी इस दोहे में कहते हैं कि कुछ बातें हमारे जीवन में इस प्रकार होती है कि हम उसे सिर्फ हमारा मन ही समझ सकता है। उसे कोई दूसरा नहीं समझ सकता। जैसे किसी गूंगे को यदि मिठाई खिला दी जाए, तो वह उसके स्वाद का वर्णन नहीं कर सकता। लेकिन उसके स्वाद को वह पूरी तरह जाता है। उसी प्रकार निराकार ब्रम्हा इश्वर का ना कोई रूप होता है, ना गुण। उस जगह पर मन स्थिर नहीं हो सकता है। सूरदास जी कहते हैं उनको श्री कृष्ण की बाललीलाओं का वर्णन करने में जो आनंद मिलता है। उसे सिर्फ वो ही समझ सकते हैं। दूसरे इस आनंद आ मजा नहीं ले सकते हैं। सूरदास इस आनंद का वर्णन नहीं कर सकता है। |
अब कै माधन मोहिं उधारि। मगन हौं भाव अम्बुनिधि में कृपासिन्धु मुरारि।। नीर अति गंभीर माया लोभ लहरि तरंग। लियें जात अगाध जल में गहे ग्राह अनंग।। मीन इन्द्रिय अतिहि काटति मोत अघ सिर भार। पग न इत उत धरन पावत उरझि मोह सिबार।। काम क्रोध समेत तृष्ना पवन अति जकझोर। नाहिं चितवत देह तियसुत नाम-मौका ओर।। थक्यौ बीच बेहाल बिह्वल सुनहु करुनामूल। श्याम भुज गहि काढि डारहु सूर ब्रज के कूल।। दोहे का अर्तुथ —>> इस दोहे में सूरदास श्री कृष्ण से कहते हैं कि मेरा उदार कर दो। इस संसार पूरे में माया रूपी जल भरा हुआ है। इस जल में लालच रुपी लहरें हैं। कामवासना रुपी मगरमच्छ भी है। इन्द्रियां मछलियों के समान है। मेरे सर पर कई पापों की गठरी रखी पड़ी है। मेरे इस जीवन में कई प्रकार का मोह भरा हुआ है। काम और क्रोध की हवा मुझे बहुत परेशान करती है। इसलिए मुझे इस माया से श्री कृष्ण के नाम की ही नाव बचा सकती है। पत्नी और बेटों का मोह मुझे किसी और की तरफ देखने ही नहीं देता है। इस कारण अब श्री कृष्ण ही मेरा बेड़ा पार लगा सकते हैं।(सूरदास जी के दोहे अर्थ सहित) |
हरि पालनैं झुलावै जसोदा हरि पालनैं झुलावै। हलरावै दुलरावै मल्हावै जोइ सोइ कछु गावै॥ मेरे लाल को आउ निंदरिया काहें न आनि सुवावै। तू काहै नहिं बेगहिं आवै तोकौं कान्ह बुलावै॥ कबहुं पलक हरि मूंदि लेत हैं कबहुं अधर फरकावैं। सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि करि करि सैन बतावै॥ इहि अंतर अकुलाइ उठे हरि जसुमति मधुरैं गावै। जो सुख सूर अमर मुनि दुरलभ सो नंद भामिनि पावै॥ दोहे का अर्तुथ —>> राग घनाक्षरी में बद्ध इस पद में सूरदास जी ने भगवान् बालकृष्ण की शयनावस्था का सुंदर चित्रण किया है। वह कहते हैं कि मैया यशोदा श्रीकृष्ण (भगवान् विष्णु) को पालने में झुला रही हैं। कभी तो वह पालने को हल्का-सा हिला देती हैं, कभी कन्हैया को प्यार करने लगती हैं और कभी मुख चूमने लगती हैं। ऐसा करते हुए वह जो मन में आता है वही गुनगुनाने भी लगती हैं। लेकिन कन्हैया को तब भी नींद नहीं आती है। इसीलिए यशोदा नींद को उलाहना देती हैं कि अरी निंदिया तू आकर मेरे लाल को सुलाती क्यों नहीं? तू शीघ्रता से क्यों नहीं आती? देख, तुझे कान्हा बुलाता है। जब यशोदा निंदिया को उलाहना देती हैं तब श्रीकृष्ण कभी तो पलकें मूंद लेते हैं और कभी होंठों को फड़काते हैं। (यह सामान्य-सी बात है कि जब बालक उनींदा होता है तब उसके मुखमंडल का भाव प्राय: ऐसा ही होता है जैसा कन्हैया के मुखमंडल पर सोते समय जाग्रत हुआ।) जब कन्हैया ने नयन मूंदे तब यशोदा ने समझा कि अब तो कान्हा सो ही गया है। तभी कुछ गोपियां वहां आई। गोपियों को देखकर यशोदा उन्हें संकेत से शांत रहने को कहती हैं। इसी अंतराल में श्रीकृष्ण पुन: कुनमुनाकर जाग गए। तब यशोदा उन्हें सुलाने के उद्देश्य से पुन: मधुर-मधुर लोरियां गाने लगीं। अंत में सूरदास नंद पत्नी यशोदा के भाग्य की सराहना करते हुए कहते हैं कि सचमुच ही यशोदा बड़भागिनी हैं। क्योंकि ऐसा सुख तो देवताओं व ऋषि-मुनियों को भी दुर्लभ है। |
सोभित कर नवनीत लिए। घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए।। चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक दिए। लट लटकनि मनु मत्त मधुप गन मादक मधुहिं पिए।। कठुला कंठ वज्र केहरि नख राजत रुचिर हिए। धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख का सत कल्प जिए।। दोहे का अर्तुथ —>> राग बिलावल पर आधारित इस पद में श्रीकृष्ण की बाल लीला का अद्भुत वर्णन किया है भक्त शिरोमणि सूरदास जी ने। श्रीकृष्ण अभी बहुत छोटे हैं और यशोदा के आंगन में घुटनों के बल ही चल पाते हैं। एक दिन उन्होंने ताजा निकला माखन एक हाथ में लिया और लीला करने लगे। सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण के छोटे-से एक हाथ में ताजा माखन शोभायमान है और वह उस माखन को लेकर घुटनों के बल चल रहे हैं। उनके शरीर पर रेनु (मिट्टी का रज) लगी है। मुख पर दही लिपटा है, उनके कपोल (गाल) सुंदर तथा नेत्र चपल हैं। ललाट पर गोरोचन का तिलक लगा है। बालकृष्ण के बाल घुंघराले हैं। जब वह घुटनों के बल माखन लिए हुए चलते हैं तब घुंघराले बालों की लटें उनके कपोल पर झूमने लगती है, जिससे ऐसा प्रतीत होता है मानो भ्रमर मधुर रस का पान कर मतवाले हो गए हैं। उनके इस सौंदर्य की अभिवृद्धि उनके गले में पड़े कठुले (कंठहार) व सिंह नख से और बढ़ जाती है। सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण के इस बालरूप का दर्शन यदि एक पल के लिए भी हो जाता तो जीवन सार्थक हो जाए। अन्यथा सौ कल्पों तक भी यदि जीवन हो तो निरर्थक ही है। |
खेलौ जाइ स्याम संग राधा। यह सुनि कुंवरि हरष मन कीन्हों मिटि गई अंतरबाधा।। जननी निरखि चकित रहि ठाढ़ी दंपति रूप अगाधा।। देखति भाव दुहुंनि को सोई जो चित करि अवराधा।। संग खेलत दोउ झगरन लागे सोभा बढ़ी अगाधा।। मनहुं तडि़त घन इंदु तरनि ह्वै बाल करत रस साधा।। निरखत बिधि भ्रमि भूलि पर्यौ तब मन मन करत समाधा।। सूरदास प्रभु और रच्यो बिधि सोच भयो तन दाधा।। दोहे का अर्तुथ —>> रास रासेश्वरी राधा और रसिक शिरोमणि श्रीकृष्ण एक ही अंश से अवतरित हुये थे। अपनी रास लीलाओं से ब्रज की भूमि को उन्होंने गौरवान्वित किया। वृषभानु व कीर्ति (राधा के माँ-बाप) ने यह निश्चय किया कि राधा श्याम के संग खेलने जा सकती है। इस बात का राधा को पता लगा तब वह अति प्रसन्न हुई और उसके मन में जो बाधा थी वह समाप्त हो गई। (माता-पिता की स्वीकृति मिलने पर अब कोई रोक-टोक रही ही नहीं, इसी का लाभ उठाते हुए राधा श्यामसुंदर के संग खेलने लगी।) जब राधा-कृष्ण खेल रहे थे तब राधा की माता दूर खड़ी उन दोनों की जोड़ी को, जो अति सुंदर थी, देख रही थीं। दोनों की चेष्टाओं को देखकर कीर्तिदेवी मन ही मन प्रसन्न हो रही थीं। तभी राधा और कृष्ण खेलते-खेलते झगड़ पड़े। उनका झगड़ना भी सौंदर्य की पराकाष्ठा ही थी। ऐसा लगता था मानो दामिनी व मेघ और चंद्र व सूर्य बालरूप में आनंद रस की अभिवृद्धि कर रहे हों। यह देखकर ब्रह्म भी भ्रमित हो गए और मन ही मन विचार करने लगे। सूरदास कहते हैं कि ब्रह्म को यह भ्रम हो गया कि कहीं जगत्पति ने अन्य सृष्टि तो नहीं रच डाली। ऐसा सोचकर उनमें ईष्र्याभाव उत्पन्न हो गया। |
मुखहिं बजावत बेनु धनि यह बृंदावन की रेनु। नंदकिसोर चरावत गैयां मुखहिं बजावत बेनु।। मनमोहन को ध्यान धरै जिय अति सुख पावत चैन। चलत कहां मन बस पुरातन जहां कछु लेन न देनु।। इहां रहहु जहं जूठन पावहु ब्रज बासिनि के ऐनु। सूरदास ह्यां की सरवरि नहिं कल्पबृच्छ सुरधेनु।। दोहे का अर्तुथ —>> राग सारंग पर आधारित इस पद में सूरदास कहते हैं कि वह ब्रजरज धन्य है जहां नंदपुत्र श्रीकृष्ण गायों को चराते हैं तथा अधरों पर रखकर बांसुरी बजाते हैं। उस भूमि पर श्यामसुंदर का ध्यान (स्मरण) करने से मन को परम शांति मिलती है। सूरदास मन को प्रबोधित करते हुए कहते हैं कि अरे मन! तू काहे इधर-उधर भटकता है। ब्रज में ही रह, जहां व्यावहारिकता से परे रहकर सुख प्राप्ति होती है। यहां न किसी से लेना, न किसी को देना। सब ध्यानमग्न हो रहे हैं। ब्रज में रहते हुए ब्रजवासियों के जूठे बासनों (बरतनों) से जो कुछ प्राप्त हो उसी को ग्रहण करने से ब्रह्मत्व की प्राप्ति होती है। सूरदास कहते हैं कि ब्रजभूमि की समानता कामधेनु भी नहीं कर सकती। इस पद में सूरदास ने ब्रज भूमि का महत्त्व प्रतिपादित किया है। |
धेनु चराए आवत आजु हरि धेनु चराए आवत। मोर मुकुट बनमाल बिराज पीतांबर फहरावत।। जिहिं जिहिं भांति ग्वाल सब बोलत सुनि स्त्रवनन मन राखत। आपुन टेर लेत ताही सुर हरषत पुनि पुनि भाषत।। देखत नंद जसोदा रोहिनि अरु देखत ब्रज लोग। सूर स्याम गाइन संग आए मैया लीन्हे रोग।। दोहे का अर्तुथ —>> भगवान् बालकृष्ण जब पहले दिन गाय चराने वन में जाते है, उसका अप्रतिम वर्णन किया है सूरदास जी ने अपने इस पद के माध्यम से। यह पद राग गौरी में बद्ध है। आज प्रथम दिवस श्रीहरि गौओं को चराकर आए हैं। उनके शीश पर मयूरपुच्छ का मुकुट शोभित है, तन पर पीतांबरी धारण किए हैं। गायों को चराते समय जिस प्रकार से अन्य ग्वाल-बाल शब्दोच्चारण करते हैं उनको श्रवण कर श्रीहरि ने हृदयंगम कर लिया है। वन में स्वयं भी वैसे ही शब्दों का उच्चारण कर प्रतिध्वनि सुनकर हर्षित होते हैं। नंद, यशोदा, रोहिणी व ब्रज के अन्य लोग यह सब दूर ही से देख रहे हैं। सूरदास कहते हैं कि जब श्यामसुंदर गौओं को चराकर आए तो यशोदा ने उनकी बलैयां लीं। |
गाइ चरावन जैहौं आजु मैं गाइ चरावन जैहौं। बृन्दावन के भांति भांति फल अपने कर मैं खेहौं।। ऐसी बात कहौ जनि बारे देखौ अपनी भांति। तनक तनक पग चलिहौ कैसें आवत ह्वै है राति।। प्रात जात गैया लै चारन घर आवत हैं सांझ। तुम्हारे कमल बदन कुम्हिलैहे रेंगत घामहि मांझ।। तेरी सौं मोहि घाम न लागत भूख नहीं कछु नेक। सूरदास प्रभु कह्यो न मानत पर्यो अपनी टेक।। दोहे का अर्तुथ —>> यह पद राग रामकली में बद्ध है। एक बार बालकृष्ण ने हठ पकड़ लिया कि मैया आज तो मैं गौएं चराने जाऊंगा। साथ ही वृन्दावन के वन में उगने वाले नाना भांति के फलों को भी अपने हाथों से खाऊंगा। इस पर यशोदा ने कृष्ण को समझाया कि अभी तो तू बहुत छोटा है। इन छोटे-छोटे पैरों से तू कैसे चल पाएगा और फिर लौटते समय रात्रि भी हो जाती है। तुझसे अधिक आयु के लोग गायों को चराने के लिए प्रात: घर से निकलते हैं और संध्या होने पर लौटते हैं। सारे दिन धूप में वन-वन भटकना पड़ता है। फिर तेरा वदन पुष्प के समान कोमल है, यह धूप को कैसे सहन कर पाएगा। यशोदा के समझाने का कृष्ण पर कोई प्रभाव नहीं हुआ, बल्कि उलटकर बोले, मैया! मैं तेरी सौगंध खाकर कहता हूं कि मुझे धूप नहीं लगती और न ही भूख सताती है। सूरदास कहते हैं कि परब्रह्म स्वरूप श्रीकृष्ण ने यशोदा की एक नहीं मानी और अपनी ही बात पर अटल रहे। |
चोरि माखन खात चली ब्रज घर घरनि यह बात। नंद सुत संग सखा लीन्हें चोरि माखन खात।। कोउ कहति मेरे भवन भीतर अबहिं पैठे धाइ। कोउ कहति मोहिं देखि द्वारें उतहिं गए पराइ।। कोउ कहति किहि भांति हरि कों देखौं अपने धाम। हेरि माखन देउं आछो खाइ जितनो स्याम।। कोउ कहति मैं देखि पाऊं भरि धरौं अंकवारि। कोउ कहति मैं बांधि राखों को सकैं निरवारि।। सूर प्रभु के मिलन कारन करति बुद्धि विचार। जोरि कर बिधि को मनावतिं पुरुष नंदकुमार।। दोहे का अर्तुथ —>> भगवान् श्रीकृष्ण की बाललीला से संबंधित सूरदास जी का यह पद राग कान्हड़ा पर आधारित है। ब्रज के घर-घर में इस बात की चर्चा हो गई कि नंदपुत्र श्रीकृष्ण अपने सखाओं के साथ चोरी करके माखन खाते हैं। एक स्थान पर कुछ ग्वालिनें ऐसी ही चर्चा कर रही थीं। उनमें से कोई ग्वालिन बोली कि अभी कुछ देर पूर्व तो वह मेरे ही घर में आए थे। कोई बोली कि मुझे दरवाजे पर खड़ी देखकर वह भाग गए। एक ग्वालिन बोली कि किस प्रकार कन्हैया को अपने घर में देखूं। मैं तो उन्हें इतना अधिक और उत्तम माखन दूं जितना वह खा सकें। लेकिन किसी भांति वह मेरे घर तो आएं। तभी दूसरी ग्वालिन बोली कि यदि कन्हैया मुझे दिखाई पड़ जाएं तो मैं गोद में भर लूं। एक अन्य ग्वालिन बोली कि यदि मुझे वह मिल जाएं तो मैं उन्हें ऐसा बांधकर रखूं कि कोई छुड़ा ही न सके। सूरदास कहते हैं कि इस प्रकार ग्वालिनें प्रभु मिलन की जुगत बिठा रही थीं। कुछ ग्वालिनें यह भी विचार कर रही थीं कि यदि नंदपुत्र उन्हें मिल जाएं तो वह हाथ जोड़कर उन्हें मना लें और पतिरूप में स्वीकार कर लें।(सूरदास जी के दोहे अर्थ सहित) |
कबहुं बोलत तात खीझत जात माखन खात। अरुन लोचन भौंह टेढ़ी बार बार जंभात।। कबहुं रुनझुन चलत घुटुरुनि धूरि धूसर गात। कबहुं झुकि कै अलक खैंच नैन जल भरि जात।। कबहुं तोतर बोल बोलत कबहुं बोलत तात। सूर हरि की निरखि सोभा निमिष तजत न मात।। दोहे का अर्तुथ —>> यह पद राग रामकली में बद्ध है। एक बार श्रीकृष्ण माखन खाते-खाते रूठ गए और रूठे भी ऐसे कि रोते-रोते नेत्र लाल हो गए। भौंहें वक्र हो गई और बार-बार जंभाई लेने लगे। कभी वह घुटनों के बल चलते थे जिससे उनके पैरों में पड़ी पैंजनिया में से रुनझुन स्वर निकलते थे। घुटनों के बल चलकर ही उन्होंने सारे शरीर को धूल-धूसरित कर लिया। कभी श्रीकृष्ण अपने ही बालों को खींचते और नैनों में आंसू भर लाते। कभी तोतली बोली बोलते तो कभी तात ही बोलते। सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण की ऐसी शोभा को देखकर यशोदा उन्हें एक पल भी छोड़ने को न हुई अर्थात् श्रीकृष्ण की इन छोटी-छोटी लीलाओं में उन्हें अद्भुत रस आने लगा। |
अरु हलधर सों भैया कहन लागे मोहन मैया मैया। नंद महर सों बाबा बाबा अरु हलधर सों भैया।। ऊंच चढि़ चढि़ कहति जशोदा लै लै नाम कन्हैया। दूरि खेलन जनि जाहु लाला रे! मारैगी काहू की गैया।। गोपी ग्वाल करत कौतूहल घर घर बजति बधैया। सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कों चरननि की बलि जैया।। दोहे का अर्तुथ —>> सूरदास जी का यह पद राग देव गंधार में आबद्ध है। भगवान् बालकृष्ण मैया, बाबा और भैया कहने लगे हैं। सूरदास कहते हैं कि अब श्रीकृष्ण मुख से यशोदा को मैया-मैया नंदबाबा को बाबा-बाबा व बलराम को भैया कहकर पुकारने लगे हैं। इना ही नहीं अब वह नटखट भी हो गए हैं, तभी तो यशोदा ऊंची होकर अर्थात् कन्हैया जब दूर चले जाते हैं तब उचक-उचककर कन्हैया को नाम लेकर पुकारती हैं और कहती हैं कि लल्ला गाय तुझे मारेगी। सूरदास कहते हैं कि गोपियों व ग्वालों को श्रीकृष्ण की लीलाएं देखकर अचरज होता है। श्रीकृष्ण अभी छोटे ही हैं और लीलाएं भी उनकी अनोखी हैं। इन लीलाओं को देखकर ही सब लोग बधाइयां दे रहे हैं। सूरदास कहते हैं कि हे प्रभु! आपके इस रूप के चरणों की मैं बलिहारी जाता हूँ। |
भई सहज मत भोरी जो तुम सुनहु जसोदा गोरी। नंदनंदन मेरे मंदिर में आजु करन गए चोरी।। हौं भइ जाइ अचानक ठाढ़ी कह्यो भवन में कोरी। रहे छपाइ सकुचि रंचक ह्वै भई सहज मति भोरी।। मोहि भयो माखन पछितावो रीती देखि कमोरी। जब गहि बांह कुलाहल कीनी तब गहि चरन निहोरी।। लागे लेन नैन जल भरि भरि तब मैं कानि न तोरी। सूरदास प्रभु देत दिनहिं दिन ऐसियै लरिक सलोरी।। दोहे का अर्तुथ —>> सूरदास जी का यह पद राग गौरी पर आधारित है। भगवान् की बाल लीला का रोचक वर्णन है। एक ग्वालिन यशोदा के पास कन्हैया की शिकायत लेकर आई। वह बोली कि हे नंदभामिनी यशोदा! सुनो तो, नंदनंदन कन्हैया आज मेरे घर में चोरी करने गए। पीछे से मैं भी अपने भवन के निकट ही छुपकर खड़ी हो गई। मैंने अपने शरीर को सिकोड़ लिया और भोलेपन से उन्हें देखती रही। जब मैंने देखा कि माखन भरी वह मटकी बिल्कुल ही खाली हो गई है तो मुझे बहुत पछतावा हुआ। जब मैंने आगे बढ़कर कन्हैया की बांह पकड़ ली और शोर मचाने लगी, तब कन्हैया मेरे चरणों को पकड़कर मेरी मनुहार करने लगे। इतना ही नहीं उनके नयनों में अश्रु भी भर आए। ऐसे में मुझे दया आ गई और मैंने उन्हें छोड़ दिया। सूरदास कहते हैं कि इस प्रकार नित्य ही विभिन्न लीलाएं कर कन्हैया ने ग्वालिनों को सुख पहुँचाया। |
हरष आनंद बढ़ावत हरि अपनैं आंगन कछु गावत। तनक तनक चरनन सों नाच मन हीं मनहिं रिझावत।। बांह उठाइ कारी धौरी गैयनि टेरि बुलावत। कबहुंक बाबा नंद पुकारत कबहुंक घर में आवत।। माखन तनक आपनैं कर लै तनक बदन में नावत। कबहुं चितै प्रतिबिंब खंभ मैं लोनी लिए खवावत।। दुरि देखति जसुमति यह लीला हरष आनंद बढ़ावत। सूर स्याम के बाल चरित नित नितही देखत भावत।। दोहे का अर्तुथ —>> राग रामकली में आबद्ध इस पद में सूरदास ने कृष्ण की बालसुलभ चेष्टा का वर्णन किया है। श्रीकृष्ण अपने ही घर के आंगन में जो मन में आता है गाते हैं। वह छोटे-छोटे पैरों से थिरकते हैं तथा मन ही मन स्वयं को रिझाते भी हैं। कभी वह भुजाओं को उठाकर काली-श्वेत गायों को बुलाते हैं, तो कभी नंदबाबा को पुकारते हैं और कभी घर में आ जाते हैं। अपने हाथों में थोड़ा-सा माखन लेकर कभी अपने ही शरीर पर लगाने लगते हैं, तो कभी खंभे में अपना ही प्रतिबिंब देखकर उसे माखन खिलाने लगते हैं। श्रीकृष्ण की इन सभी लीलाओं को माता यशोदा छुप-छुपकर देखती हैं और मन ही मन प्रसन्न होती हैं। सूरदास कहते हैं कि इस प्रकार यशोदा श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं को देखकर नित्य ही हर्षाती हैं। |
मैं नहिं माखन खायो मैया! मैं नहिं माखन खायो। ख्याल परै ये सखा सबै मिलि मेरैं मुख लपटायो।। देखि तुही छींके पर भाजन ऊंचे धरि लटकायो। हौं जु कहत नान्हें कर अपने मैं कैसें करि पायो।। मुख दधि पोंछि बुद्धि इक कीन्हीं दोना पीठि दुरायो। डारि सांटि मुसुकाइ जशोदा स्यामहिं कंठ लगायो।। बाल बिनोद मोद मन मोह्यो भक्ति प्राप दिखायो। सूरदास जसुमति को यह सुख सिव बिरंचि नहिं पायो।। दोहे का अर्तुथ —>> राग रामकली में बद्ध यह सूरदास का अत्यंत प्रचलित पद है। श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं में माखन चोरी की लीला सुप्रसिद्ध है। वैसे तो कन्हैया ग्वालिनों के घरों में जा-जाकर माखन चुराकर खाया करते थे। लेकिन आज उन्होंने अपने ही घर में माखन चोरी की और यशोदा ने उन्हें देख भी लिया। इस पद में सूरदास ने श्रीकृष्ण के वाक्चातुर्य का जिस प्रकार वर्णन किया है वैसा अन्यत्र नहीं मिलता। जब यशोदा ने देख लिया कि कान्हा ने माखन खाया है तो पूछ ही लिया कि क्यों रे कान्हा! तूने माखन खाया है क्या? तब श्रीकृष्ण अपना पक्ष किस तरह मैया के समक्ष प्रस्तुत करते हैं, यही इस पद की विशिष्टता है। कन्हैया बोले.. मैया! मैंने माखन नहीं खाया है। मुझे तो ऐसा लगता है कि इन ग्वाल-बालों ने ही बलात् मेरे मुख पर माखन लगा दिया है। फिर बोले कि मैया तू ही सोच, तूने यह छींका किना ऊंचा लटका रखा है और मेरे हाथ कितने छोटे-छोटे हैं। इन छोटे हाथों से मैं कैसे छींके को उतार सकता हूँ। कन्हैया ने मुख से लिपटा माखन पोंछा और एक दोना जिसमें माखन बचा रह गया था उसे पीछे छिपा लिया। कन्हैया की इस चतुराई को देखकर यशोदा मन ही मन मुस्कराने लगीं और छड़ी फेंककर कन्हैया को गले से लगा लिया। सूरदास कहते हैं कि यशोदा को जिस सुख की प्राप्ति हुई वह सुख शिव व ब्रह्मा को भी दुर्लभ है। श्रीकृष्ण (भगवान् विष्णु) ने बाल लीलाओं के माध्यम से यह सिद्ध किया है कि भक्ति का प्रभाव कितना महत्त्वपूर्ण है।(सूरदास जी के दोहे अर्थ सहित) |
कबहुं बढ़ैगी चोटी मैया कबहुं बढ़ैगी चोटी। किती बेर मोहि दूध पियत भइ यह अजहूं है छोटी।। तू जो कहति बल की बेनी ज्यों ह्वै है लांबी मोटी। काढ़त गुहत न्हवावत जैहै नागिन-सी भुई लोटी।। काचो दूध पियावति पचि पचि देति न माखन रोटी। सूरदास त्रिभुवन मनमोहन हरि हलधर की जोटी।। दोहे का अर्तुथ —>> रामकली राग में बद्ध यह पद बहुत सरस है। बाल स्वभाववश प्राय: श्रीकृष्ण दूध पीने में आनाकानी किया करते थे। तब एक दिन माता यशोदा ने प्रलोभन दिया कि कान्हा! तू नित्य कच्चा दूध पिया कर, इससे तेरी चोटी दाऊ (बलराम) जैसी मोटी व लंबी हो जाएगी। मैया के कहने पर कान्हा दूध पीने लगे। अधिक समय बीतने पर एक दिन कन्हैया बोले.. अरी मैया! मेरी यह चोटी कब बढ़ेगी? दूध पीते हुए मुझे कितना समय हो गया। लेकिन अब तक भी यह वैसी ही छोटी है। तू तो कहती थी कि दूध पीने से मेरी यह चोटी दाऊ की चोटी जैसी लंबी व मोटी हो जाएगी। संभवत: इसीलिए तू मुझे नित्य नहलाकर बालों को कंघी से संवारती है, चोटी गूंथती है, जिससे चोटी बढ़कर नागिन जैसी लंबी हो जाए। कच्चा दूध भी इसीलिए पिलाती है। इस चोटी के ही कारण तू मुझे माखन व रोटी भी नहीं देती। इतना कहकर श्रीकृष्ण रूठ जाते हैं। सूरदास कहते हैं कि तीनों लोकों में श्रीकृष्ण-बलराम की जोड़ी मन को सुख पहुंचाने वाली है। |
“चरण कमल बंदो हरी राइ । जाकी कृपा पंगु गिरी लांघें अँधे को सब कुछ दरसाई।। बहिरो सुनै मूक पुनि बोले रंक चले सर छत्र धराई। सूरदास स्वामी करुणामय बार- बार बंदौ तेहि पाई ।।” दोहे का अर्तुथ —>> सूरदास के अनुसार श्री कृष्ण की कृपा होने पर लंगड़ा व्यक्ति भी पर्वत को लाँघ लेता है । अंधे को सब कुछ दिखाई देने लता है। बहरे व्यक्ति सुनने लगता है। गूंगा व्यक्ति बोलने लगता है और गरीब व्यक्ति अमीर हो जाता है। ऐसे दयालु श्री कृष्ण के चरणों की वंदना कौन नहीं करेगा । |
“अबिगत गति कछु कहत न आवै । ज्यो गूँगों मीठे फल की रास अंतर्गत ही भावै ।। परम स्वादु सबहीं जु निरंतर अमित तोष उपजावै। मन बानी को अगम अगोचर सो जाने जो पावै ।। रूप रेख मून जाति जुगति बिनु निरालंब मन चक्रत धावै । सब बिधि अगम बिचारहि,तांतों सुर सगुन लीला पद गावै ।।” दोहे का अर्तुथ —>> अव्यक्त उपासना को मनुष्य के लिए क्लिष्ट बताया गया है । निराकार ब्रह्म का चिंतन अनिर्वचनीय है । यह मन और वाणी का विषय नही है । ठीक उसी प्रकार जैसे किसी गूंगे को मिठाई खिला दी जाए और उससे उसका स्वाद पूछा जाए तो वह मिठाई का स्वाद नही बता सकता है । मिठाई के रस का स्वाद तो उसका मन ही जानता है । निराकार ब्रह्म का न रूप है ना न गुण है । इसलिए मैं यहाँ स्थिर नही रह सकता ।सभी तरह से वह अगम्य है । अतः सूरदास जी सगुन ब्रह्म श्रीकृष्ण की लीला का ही गायन करना उचित समझते है । |
“जसोदा हरि पालनै झुलावै । हलरावै दुलरावै मल्हावै जोई सोई कछु गावै ।। मेरे लाल को आउ निंदरिया कहे न आनि सुवावै । तू काहै नहि बेगहि आवै तोको कान्ह बुलावै ।। कबहुँ पलक हरि मुंदी लेत है कबहु अधर फरकावै । सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि करि करि सैन बतावै ।। इही अंतर अकुलाई उठे हरि जसुमति मधुरैं गावै। जो सुख सुर अमर मुनि दुर्लभ सो नंद भामिनि पावै ।।” दोहे का अर्तुथ —>> यशोदा जी श्याम को पालने में झूला रही है । कभी झुलाती है । कभी प्यार से पुचकारती है । कुछ गाते हुए कहती है कि निंद्रा तू मेरे लाल के पास आ जा । तू क्यों आकर इसे सुलाती नही है । तू झटपट क्यो नही आती ? तुझे कन्हिया बुला रहा है । श्याम कभी पलके बंद कर लेते है । कभी अधर फड़काने लगते है । उन्हे सोते हुए जान कर माता चुप रहती है और दूसरी गोपियों को भी चुप रहने को कहती है । इसी बीच मे श्याम आकुल होकर जाग जाते है । यशोदा जी फिर मधुर स्वर में गाने लगती है । सूरदास जी कहते है कि जो सुख देवताओं और मुनियों के लिए भी दुर्लभ है । वही सुख श्याम बाल रूप में पाकर श्री नंद पत्नी यशोदा जी प्राप्त कर रही है । |
“मैया मोहि दाऊ बहुत खिजायौ । मोसो कहत मोल को लीन्हो ,तू जसमति कब जायौ ? कहा करौ इही के मारे खेलन हौ नही जात । पुनि -पुनि कहत कौन है माता ,को है तेरौ तात ? गोरे नंद जसोदा गोरी तू कत श्यामल गात । चुटकी दै दै ग्वाल नचावत हंसत सबै मुसकात । तू मोहि को मारन सीखी दाउहि कबहु न खीजै।। मोहन मुख रिस की ये बातै ,जसुमति सुनि सुनि रीझै । सुनहु कान्ह बलभद्र चबाई ,जनमत ही कौ धूत । सूर स्याम मोहै गोधन की सौ,हौ माता थो पूत ।।” दोहे का अर्तुथ —>> राग घनाक्षरी पर आधारित है । बाल कृष्ण मां यशोदा से बलराम जी की शिकायत करते हुए कहते है कि मैया दाऊ मुझे बहुत चिढ़ाते है । मुझसे कहते है कि तू मोल लिया हुआ है । यशोदा मैया ने तुझे कब उत्पन्न किया । मैं क्या करूँ इसी क्रोध में , मैं खेलने नही जाता । वे बार बार कहते है : तेरी माता कौन है ? तेरे पिता कौन है? नंद बाबा तो गोरे है । यशोदा मैया भी गोरी है । तू सांवरे रंग वाला कैसे है ? दाऊ जी इस बात पर सभी ग्वालबाल मुझे चुटकी देकर नचाते है ।और फिर सब हँसते है और मुस्कराते है । तूने तो मुझे ही मारना सीखा है । दाऊ को कभी डांटती भी नही । सूरदास जी कहते है कि मोहन के मुख से ऐसी बाते सुनकर यशोदा जी मन ही मन मे प्रसन्न होती है । वे कहती है कि कन्हिया सुनो बलराम तो चुगलखोर है और वो आज से नही बल्कि जन्म से ही धूर्त है । हे श्याम मैं गायों की शपथ कहकर कह रही हूँ कि मैं तुम्हारी माता हूँ और तुम मेरे पुत्र हो । |
“मैया मोहि मैं नही माखन खायौ । भोर भयो गैयन के पाछे ,मधुबन मोहि पठायो । चार पहर बंसीबट भटक्यो , साँझ परे घर आयो ।। मैं बालक बहियन को छोटो ,छीको किहि बिधि पायो । ग्वाल बाल सब बैर पड़े है ,बरबस मुख लपटायो ।। तू जननी मन की अति भोरी इनके कहें पतिआयो । जिय तेरे कछु भेद उपजि है ,जानि परायो जायो ।। यह लै अपनी लकुटी कमरिया ,बहुतहिं नाच नचायों। सूरदास तब बिहँसि जसोदा लै उर कंठ लगायो ।।” दोहे का अर्तुथ —>> बहुत ही प्रसिद्ध पद है ,श्री कृष्ण की बाल लीला का वर्णन अत्यंत सहज भाव से सूरदास जी करते है : कन्हैया कहते है कि मैया मैंने माखन नही खाया है ।सुबह होते ही गायों के पीछे मुझे भेज देती हो । चार पहर भटकने के बाद साँझ होने पर वापस आता हूँ । मैं छोटा बालक हूँ । मेरी बाहें छोटी है , मैं छीके तक कैसे पहुँच सकता हूँ ? मेरे सभी दोस्त मेरे से बैर रखते है । इन्होंने मक्खन जबरदस्ती मेरे मुख में लिपटा दिया है । मां तू मन की बहुत ही भोली है । इनकी बातो में आ गईं है । तेरे दिल मे जरूर कोई भेद है ,जो मुझे पराया समझ कर मुझ पर संदेह कर रही हो । ये ले अपनी लाठी और कम्बल ले ले । तूने मुझे बहुत परेशान किया है । श्री कृष्ण ने बातों से अपनी मां का मन मोह लिया । मां यशोदा ने मुस्कराकर कन्हैया को अपने गले से लगा लिया । |
“मुखहि बजावत बेनु धनि यह वृन्दावन की रेनु । नंद किसोर चरावत गैयां मुखहि बजावत बेनु ।। मनमोहन को ध्यानधरै जिय अति सुख पावत चैन। चलत कहां मन बस पुरातन जहाँ कछु लें ना देन ।। यहां रहहु जहँ जूठन पावहु ब्रज बासिनी के ऐनु । सूरदास ह्या की सरवरि नहि कल्पबृच्छ सुरधेनु ।।” दोहे का अर्तुथ —>> यह दोहा राग सारंग पर आधारित है । सूरदास जी कहते है कि ब्रजरज धन्य है जहां नंदपुत्र श्री कृष्ण गायो को चराते है और अपने अधरों पर बाँसुरी बजाते है । इस भूमिपर स्याम का स्मरण करने से मन को परम शांति मिलती है । मन को प्रभावित करते हुए सूरदास जी कहते है कि हे मन! तू काहे इधर उधर भटकता है । ब्रज में ही रहकर ,व्यवहारिकता से परे रहकर सुख की प्राप्ति होती है । यहां न किसी से लेना है ना किसी को देना है । सब ईश्वर के प्रति ध्यान मग्न हो रहे है । ब्रज में रहते हुए ब्रजवासियो के जूठे बर्तन से ही कुछ प्राप्त हो उसे ग्रहण करने से ब्रह्ममत्व की प्राप्ति होती है । ब्रजभूमि की समानता कामधेनु भी नही कर सकती ।(सूरदास जी के दोहे अर्थ सहित) |
“मैया मोहि कबहुँ बढ़ेगी चोटी । किती बेर मोहि दूध पियत भइ यह अजहू है छोटी ।। तू तो कहति बल की बेनी ज्यों ह्वै है लांबी मोटी । काढ़त गुहत न्हावावत जैहै नागिन सी भुई लोटी ।। काचो दूध पियावति पचि -पचि देति न माखन रोटी । सूरदास त्रिभुवन मनमोहन हरि हलधर की जोटी ।।” दोहे का अर्तुथ —>> रामकली राग में बद्ध यह पद बहुत ही लोकप्रिय है । बाल्य काल मे श्री कृष्ण दूध पीने में आना -कानी किया करते थे । तब एक दिन माता यशोदा ने प्रलोभन दिया कि कान्हा तुम रोज कच्चा दूध पिया करो । इससे तेरी चोटी दाऊ जैसी मोटी और लंबी हो जाएगी । मैया के कहने पर कान्हा दूध पीने लगे । अधिक समय बीतने पर एक दिन कन्हैया बोले मैया मेरी यह चोटी कब बढ़ेगी ? दूध पीते हुए मुझे कितना समय हो गया है । लेकिन अभी तक वैसी ही छोटी है । तू तो कहती थी कि दूध पीने से तेरी चोटी दाऊ की तरह मोटी और लम्बी हो जाएगी । शायद इसलिए तू मुझे नित्य नहला कर बालों को कंघी से सॅवारती है । चोटी गूँधती है । जिससे चोटी बढ़कर नागिन सी लंबी हो जाये । कच्चा दूध भी इसलिए पिलाती है । इस चोटी के कारण ही तू मुझे माखन और रोटी भी नही देती है । इतना कहकर श्री कृष्ण रूठ जाते है । सूरदास जी कहते है कि तीनों लोकों में श्रीकृष्ण और बलराम की जोड़ी मन को सुख पहुंचाने वाली है । |
” बुझत स्याम कौन तू गोरी। कहां रहति काकी है बेटी देखी नही कहूं ब्रज खोरी ।। काहे को हम ब्रजतन आवति खेलति रहहि आपनी पौरी । सुनत रहति स्त्रवननि नंद ढोटा करत फिरत माखन दधि चोरी ।। तुम्हरो कहा चोरी हम लैहैं खेलन चलौ संग मिलि जोरी । सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भूरइ राधिका भोरी ।।” यह पद राग तोड़ी से बद्ध है । इसमें राधा के प्रथम मिलन के बारे में वर्णन किया गया है । दोहे का अर्तुथ —>> श्रीकृष्ण ने राधा से पूछा , हे ! गौरी तुम कौन हो ? कहां रहती हो ? किसकी पुत्री हो ? हमने पहले कभी तुम्हे इन गलियों में नही देखा । तुम हमारे इस ब्रज में क्यो चली आयी ? अपने ही घर के आंगन में खेलती रहती । इतना सुनकर राधा बोली ,मैं सुना करती थी कि नंद का लड़का माखन चोरी करता फिरता है ।कृष्ण बोले कि हम तुम्हारा क्या चुरा लेंगे ? अच्छा हम मिलजुलकर खेलते है । इस प्रकार सूरदास जी कहते है कि रसिक कृष्ण ने बातो ही बातो में भोली भाली राधा को भरमा दिया । |
“निरगुन कौन देस को वासी । मधुकर किह समुझाई सौह दै, बूझति सांची न हांसी।। को है जनक ,कौन है जननि ,कौन नारि कौन दासी । कैसे बरन भेष है कैसो ,किहं रस में अभिलासी ।। पावैगो पुनि कियौ आपनो, जा रे करेगी गांसी । सुनत मौन हवै रह्यौ बावरों, सुर सबै मति नासी ।।” दोहे का अर्तुथ —>> भ्रमरगीत सार में सूरदास जी ने उन पदों को समाहित किया है जिसमे मथुरा से कृष्ण द्वारा उद्वव को ब्रज संदेश लेकर भेजा जाता है । उद्वव जो कि योग और ब्रह्म के ज्ञाता है । उनका प्रेम से कोई नाता नही है ।जब गोपियों को निराकारब्रह्म और योग की शिक्षा देते है, तो गोपियों को यह अच्छा नही लगता ।गोपियाँ रुष्टहो जाती है और उद्वव को काले भवँरे की उपमा देती है । उनका यह संवाद ही भ्रमरगीत सार के नाम से विख्यात हुआ । गोपियाँ उद्वव जी से कहती है कि तुम्हारा यह निर्गुण किस देश का रहने वाला है सच मे मैं सौगन्ध देकर पूछती हूँ । यह हंसी की बात नही है । इसके माता पिता, नारी -दासी आखिर कौन है । इनका रूप रंग और भेष कैसा है ? किस रस में उनकी रुचि है ? यदि उनसे हमने छल किया तो तुम पाप और दंड के भागी होंगे । सूरदास जी कहते है कि गोपियों के इस तर्क के आगे उद्वव की बुद्धि कुंद हो गयी और वे चुप हो गए । |
“उधौ मन न भये दस बीस । एक हुतौ सौ गयो स्याम संग ,को अराधे ईस ।। इन्द्री सिथिल भई केसव बिनु ,ज्यो देहि बिनु सीस । आसा लागि रहित तन स्वाहा ,जीवहि कोटि बरीस।। तुम तौ सखा स्याम सुंदर के ,सकल जोग के ईस । सूर हमारे नंद -नंदन बिनु और नही जगदीस ।।” दोहे का अर्तुथ —>> गोपियाँ व्यंग करना बंद करके अपने मन की दशा का वर्णन करती हुई कहती है कि हे उद्वव हमारे मन दस बीस तो है नही ,एक था वह भी श्याम के साथ चला गया । अब किस मन से ईश्वर की आराधना करें उनके बिना हमारी इंद्रियां शिथिल पड़ गयी है । शरीर मानो बिना सिर के हो गया है । बस उनके दर्शन की थोड़ी सी आशा भी हमे करोड़ो वर्ष जीवित रखेगी ।तुम तो कान्हा के सखा हो ,योग के पूर्ण ज्ञाता हो । तुम कृष्ण के बिना भी योग के सहारे अपना उद्धार कर लोगे । हमारा तो नंद कुमार कृष्ण के सिवा कोई ईश्वर नही है ।(सूरदास जी के दोहे अर्थ सहित) |
प्रमुख कवियों के दोहे लिस्ट |
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